मध्यप्रदेश पाठ्यपुस्तक निगम को बताना होगा कि निगम की सिलेबस समिति और उसकी कार्य शैली क्या है। ब्रिटिश शासन के ज़माने में जानकारी छुपाने के लिए लाए गए ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट वाली मानसिकता आज भी प्रचलन में है। ‘सूचना का अधिकार’ कानून आने के 20 साल बाद भी संस्थान जानकारी देने से इनकार कर देते हैं, ये चिंताजनक है…ये कहना है आरटीआई लगाने वाले नितेश व्यास के वकील नित्यानंद मिश्र का। नितेश व्यास ने 2019 में पाठ्य पुस्तक निगम की सिलेबस समिति और उसकी कार्य शैली को लेकर आरटीआई लगाई थी, जिसके जवाब में पाठ्य पुस्तक निगम ने खुद को सरकारी संस्थान ना बताते हुए जानकारी देने से इनकार कर दिया था। अब 5 साल बाद इस मामले में हाईकोर्ट ने पाठ्य पुस्तक निगम को जानकारी देने का निर्देश दिया है। इस मामले ने एक नई बहस को जन्म दिया है। आईये आपको बताते हैं पूरा मामला क्या है।
जिज्ञासावश लगाई आरटीआई
भोपाल में रहने वाले नीतेश व्यास बताते हैं कि एक दिन पाठ्य पुस्तक निगम और सिलेबस निर्धारित करने वाली समिति की कार्य शैली जानने का ख्याल आया, खोजबीन करने पर आरटीआई का ज़रिया उन्हें मिला। उन्होंने 2 मुख्य सवालों के साथ आरटीआई लगा दी, उन्होंने बताया कि ‘आरटीआई में मैंने पाठ्यक्रम में संशोधन यानी रिव्यू समिति के सदस्यों की जानकारी मांगी। मैंने इस समिति की मीटिंग की जानकारी भी मांगी।’ नितेश इस सवाल से सक्ते में थे, उनका कहना है कि पाठ्य पुस्तक निगम शासकीय निगम है, शासकीय बिल्डिंग में संचालित है। संचालक मंडल में मंत्री, सचिव और अधिकारी शासन के नियंत्रण में हैं इसलिए पाठ्य पुस्तक निगम “अधिनियम” की धारा 2 (h) (d) (i) के तहत लोक प्राधिकारी की परिधि में आता है। मध्य प्रदेश सरकार द्वारा संचालित सरकारी स्कूलों और एम पी बोर्ड से मान्यता प्राप्त गैर सरकारी स्कूलों द्वारा जिस सिलेबस का उपयोग किया जाता है, इसका निर्धारण पब्लिकेशन के समय सारी जिम्मेदारियां मध्यप्रदेश पाठ्य पुस्तक निगम द्वारा की जाती है।
SIC में अपील, निगम को जानकारी देने दिये निर्देश
नितेश व्यास ने पाठ्य पुस्तक निगम के जानकारी देने से इंकार करने के विरोध में राज्य सूचना आयोग में अपील की। जिसके तहत राज्य सूचना अधिकारी ए के शुक्ला ने अपने आदेश में पाठ्य पुस्तक निगम को जानकारी देने का निर्देश दिया। हालांकि नितेश नहीं जानते थे कि ये लड़ाई अभी और लंबी चलने वाली है क्योंकि राज्य सूचना अधिकारी के फैसले के खिलाफ पाठ्य पुस्तक निगम ने हाईकोर्ट में रिट याचिका लगाई।
परेशान करने के लिए मुझे फर्स्ट पार्टी बनाया- नितेश
आरटीआई लगाने वाले नितेश व्यास का कहना है कि ये याचिका सूचना आयोग के फैसले के खिलाफ थी, ऐसे में सूचना आयोग या फिर सूचना अधिकारी को पहली पार्टी बनाया जाना चाहिए था। लेकिन निगम ने उन्हें परेशान करने के लिए उन्हें फर्स्ट पार्टी बनाया। हालांकि हाईकोर्ट ने अपनी सुनवाई में रिट याचिका खारिज कर दी। यानी हाईकोर्ट ने भी माना कि पाठ्य पुस्तक निगम आरटीआई के तहत आता है और उसे जानकारी देनी चाहिए। जबलपुर हाई कोर्ट में 20 सितंबर को सुनवाई करते हुए जस्टिस विशाल धागट ने पिटिशन खारिज कर दी। राज्य सूचना आयुक्त के ऑर्डर के आधार पर निगम को सूचना अधिकारी नियुक्त करने के लिए निर्देशित किया।
सरकार ने कहा आपको नहीं देनी जानकारी तो आप मत दो
पाठ्य पुस्तक निगम के मैनेजिंग डायरेक्टर ने इस मामले पर दैनिक भास्कर को बताया कि हमें इस मामले में स्टे मिला हुआ था। हमारी रिट पिटीशन खारिज हुई है इस बात की अभी जानकारी नहीं है। सरकार ने एक सर्कुलर जारी कर पाठ्य पुस्तक निगम आरटीआई से बाहर रखा था। हमें उसमें छूट मिली थी हो सकता है किसी मामले में कुछ निर्णय आए हो। लेकिन वो सर्कुलर खारिज नहीं हुआ न।
- सवाल – सरकार ने किस आधार पर पाठ्य पुस्तक निगम को आरटीआई दायरे से बाहर रखा ?
- जवाब – सरकार को किसी आधार की जरूरत थोड़ी होती है। सरकार ने कहा आपको नहीं देनी जानकारी तो आप मत दो
पारदर्शिता को लेकर सवाल
सूचना आयोग और फिर हाईकोर्ट के इस फैसले पर दैनिक भास्कर ने पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त शैलेष गांधी से बात की। उन्होंने कहा कि जिसके पास भी ताकत होती है वो पारदर्शिता से उतना ही डरते हैं। वो बताते हैं कि सूचना के अधिकार कानून के तहत फैसले का अंतिम अधिकार सूचना अधिकारी के पास होता है। लेकिन संस्थान और सरकार रिट पिटीशन के माध्यम से इसे लेकर कोर्ट जाते हैं। ये गलत है क्योंकि रिट पिटीशन नागरिकों के फंडामेंटल राइट की सुरक्षित करने के लिए हैं। कोर्ट को ऐसी रिट तुरंत खारिज कर देना चाहिए। वो कहते हैं कि इस कानून को और ज्यादा मज़बूत करने के लिए हमें सूचना अधिकारियों को और ताकत देनी चाहिए। जिससे इस कानून का उद्देश्य पूरा हो पाए और आम नागरिकों तक सूचनाएं आसानी से पहुंच सकें।
आईये जानते है कौन है RTI के दायरे में
देश के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, संसद और राज्य विधानमंडल के साथ ही सीजेआई ऑफिस, CAG यानी नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक और निर्वाचन आयोग जैसे संवैधानिक निकायों और उनसे संबंधित पदों को सूचना का अधिकार अधिनियम के दायरे में लाया गया है।अधिनियम के मुताबिक, एक लोक प्राधिकारी/प्राधिकरण को अध्याय II के अनुसार रिकॉर्ड बनाए रखना जरूरी है और प्रत्येक नागरिक को लोक प्राधिकारी / प्राधिकरण से जानकारी प्राप्त करने का अधिकार है। ‘लोक प्राधिकारी/प्राधिकरण अधिनियम की धारा 02 (एच) में परिभाषित है. जो इस प्रकार है-
पारदर्शिता को लेकर सवाल
सूचना आयोग और फिर हाईकोर्ट के इस फैसले पर दैनिक भास्कर ने पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त शैलेष गांधी से बात की। उन्होंने कहा कि सूचना के अधिकार कानून के तहत फैसले का अंतिम अधिकार सूचना अधिकारी के पास होता है। लेकिन संस्थान और सरकार रिट पिटीशन के माध्यम से इसे लेकर कोर्ट जाते हैं। ये गलत है क्योंकि रिट पिटीशन नागरिकों के फंडामेंटल राइट की सुरक्षित करने के लिए हैं। कोर्ट को ऐसी रिट तुरंत खारिज कर देना चाहिए। वो कहते हैं कि इस कानून को और ज्यादा मज़बूत करने के लिए हमें सूचना अधिकारियों को और ताकत देनी चाहिए। जिससे इस कानून का उद्देश्य पूरा हो पाए और आम नागरिकों तक सूचनाएं आसानी से पहुंच सकें।