अदालती फैसला धार्मिक ग्रंथ नहीं: सुप्रीम कोर्ट

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नई दिल्ली । सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अदालती फैसला धार्मिक ग्रंथ की तरह नहीं है जिसे संशोधित या सही नहीं किया जाए। शीर्ष अदालत ने कहा है कि फैसला कोई विराम-स्थल नहीं है बल्कि सोपान है। जस्टिस अरूण मिश्रा ने ये टिप्पणी भूमि अधिग्रहण में मुआवजे से संबंधित मामले में पांच सदस्यीय पीठ से खुद को अलग करने से इनकार करते हुए की है। जस्टिस मिश्रा ने अपने वृहत आदेश में कहा है कि उनका इस मामले की सुनवाई हट जाना बड़ी गलती  होगी क्योंकि पीठ के अन्य चार सदस्यों का भी मानना है कि जस्टिस मिश्रा को इस मामले की सुनवाई के लिए अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता। अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सिर्फ इसलिए कि किसी जज को बड़ी पीठ ने शामिल नहीं होना चाहिए कि वह उस मसले पर पूर्व में एक फैसले के जरिए अपनी राय व्यक्त कर चुके हैं, यह सुनवाई से अलग होने का आधार नहीं हो सकता। अगर ऐसा होगा तो कोई भी जज पुनर्विचार, सुधारात्मक या बड़ी पीठ के पास भेजे गए रेफरेंस का हिस्सा नहीं हो पाएगा। साथ ही संविधान पीठ ने अपने फैसले में यह भी कहा है कि शीर्ष अदालत में ऐसा कोई भी जज नहीं होगा जिसने पूर्व में भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धारा-24 को लेकर पूर्व में कोई राय नहीं दी होगी। अगर याचिकाकर्ताओं द्वारा किसी जज को सुनवाई से अलग करने की मांग को स्वीकार कर लिया गया तो किसी भी जज के पास न्यायिक स्तर पर इस मसले का सुनने का अधिकार नहीं होगा। पीठ ने कहा कि हम हर दिन समानप्रावधान या थोड़े अलग प्रावधान से गुजरते हैं। ऐसे में पूर्व में जज में पूर्व में लिया गया कोई विचार, सुनवाई से अलग होने का आधार नहीं हो सकता।
कोई भी फैसला विराम-स्थल नहीं होता है
शीर्ष अदालत ने कहा, हमें फैसले को सही करना होता है, मामले केस्वरूप को देखते हुए स्वतंत्र रूप से कानून को परीक्षण करना होता है। कोई भी फैसला विराम-स्थल नहीं होता है। यह सोपान है। यह धर्म-ग्रंथ की तरह नहीं होता है जिसे संशोधित या सही न किया जाए।  फैसले में यह भी कहा गया कि शीर्ष अदालत में ही नहीं बल्कि हाईकोर्ट में भी परंपरा रही है कि अगर किसी मसले को बड़ी पीठ केपास भेजा गया तो पूर्व में मसले पर परीक्षण करने वाले जज को बड़ी पीठ में शामिल किया जाता है। दिल्ली हाईकोर्ट के नियम में यह बात कही गई है।