राज्य सरकारें अब अनुसूचित जाति के रिजर्वेशन में कोटे में कोटा दे सकेंगी। सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को इस बारे में जरूरी फैसला सुनाया। अदालत ने 20 साल पुराना अपना ही फैसला पलटा है। हालांकि कोर्ट ने हिदायत भी दी है कि राज्य सरकारें मनमर्जी से फैसला नहीं कर सकतीं। उन्हें जातियों की हिस्सेदारी उनकी संख्या के पुख्ता डेटा के आधार पर ही तय करनी होगी।
यह फैसला सुप्रीम कोर्ट की कंस्टिट्यूशन बेंच का है। इसमें 7 जज थे। यह सुनवाई एकसाथ 23 याचिकाओं पर हो रही थी। इनमें सुप्रीम कोर्ट के 2004 के फैसले की समीक्षा की मांग की गई थी। तब कोर्ट ने कहा था कि अनुसूचित जाति के लोग सदियों से भेदभाव और अपमान झेल रहे हैं। उन सब को एक समान माना जाना चाहिए। उनके अंदर किसी तरह का बंटवारा ठीक नहीं होगा।
कोर्ट ने संविधान के 3 आर्टिकल पर अपना रुख साफ किया
1. आर्टिकल 15-16 (राज्य किसी जाति की सब कैटेगरी नहीं बना सकते): ताजा आदेश का दोनों आर्टिकल से कोई लेना-देना नहीं।
2. आर्टिकल 14 (समानता का अधिकार): कोटा में कोटा देना समानता के अधिकार के खिलाफ नहीं।
3. आर्टिकल 341(2) (आरक्षण पर निर्देश): ताजा आदेश से इसके किसी प्रावधान का उल्लंघन नहीं होता।
पक्ष में फैसला देने वाले जजों के बयान…
- CJI डीवाई चंद्रचूड़ : सब-क्लासिफिकेशन आर्टिकल 14 का उल्लंघन नहीं करता, क्योंकि सब-कैटेगरीज को सूची से बाहर नहीं रखा गया है। आर्टिकल 15 और 16 में ऐसा कुछ नहीं है जो राज्य को किसी जाति को सब-कैटेगरी में बांटने से रोकता हो। SC की पहचान बतानो वाले पैमानों से ही पता चल जाता है कि वर्गों के भीतर बहुत ज्यादा फर्क है।
- जस्टिस बीआर गंवई : सब कैटेगरी का आधार राज्यों के आंकड़ों से होना चाहिए, वह अपनी मर्जी से काम नहीं कर सकता। क्योंकि आरक्षण के बाद भी निम्न ग्रेड के लोगों को अपने पेशे को छोड़ने में कठिनाई होती है। ईवी चिन्नैया केस में असली गलती यह है कि यह इस समझ पर आगे बढ़ा कि आर्टिकल 341 आरक्षण का आधार है।
- जस्टिस गवई : इस जमीनी हकीकत से इनकार नहीं किया जा सकता, एससी/एसटी के भीतर ऐसी कैटेगरी हैं जिन्हें सदियों से उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है। सब कैटेगरी का आधार यह है कि बड़े समूह के अंतर्गत आने वाले एक समूह को ज्यादा भेदभाव का सामना करना पड़ता है। अनुसूचित जातियों के हाई क्लास वकीलों के बच्चों की तुलना गांव में मैला ढोने वाले के बच्चों से करना गलत है।
- जस्टिस गवई : बीआर अंबेडकर ने कहा है कि इतिहास बताता है कि जब नैतिकता का सामना अर्थव्यवस्था से होता है, तो जीत अर्थव्यवस्था की होती है। सब-कैटेगरी की परमिशन देते समय, राज्य केवल एक सब-कैटेगरी के लिए 100% आरक्षण नहीं रख सकता है।
- जस्टिस शर्मा : मैं जस्टिस गवई के इस विचार से सहमत हूं कि एससी/एसटी में क्रीमी लेयर की पहचान का मुद्दा राज्य के लिए संवैधानिक अनिवार्यता बन जाना चाहिए।
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असहमति जताने वाले जजों का बयान…
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- जस्टिस बेला एम त्रिवेदी इस फैसले में असहमति जताने वाली इकलौती जज रहीं। उन्होंने कहा कि यह देखा गया कि आंध्र प्रदेश और पंजाब जैसे राज्यों में स्टेटवाइज रिजर्वेशन के कानूनों को हाईकोर्ट्स ने असंवैधानिक बताया है। आर्टिकल 341 को लेकर यह कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि राष्ट्रपति की अधिसूचना अंतिम मानी जाती है। केवल संसद ही कानून बनाकर सूची के भीतर किसी वर्ग को शामिल या बाहर करती है।
- अनुसूचित जाति कोई साधारण जाति नहीं है, यह केवल आर्टिकल 341 की अधिसूचना के जरिए अस्तित्व में आई है। अनुसूचित जाति वर्गों, जनजातियों का एक मिश्रण है और एक बार अधिसूचित होने के बाद एक समरूप समूह बन जाती है।राज्यों का सब-क्लासिफिकेशन आर्टिकल 341(2) के तहत राष्ट्रपति की अधिसूचना के साथ छेड़छाड़ करने जैसा होगा।
- इंदिरा साहनी ने पिछड़े वर्गों को अनुसूचित जातियों के नजरिए से नहीं देखा है। आर्टिकल 142 काइस्तेमाल एक नई इमारत बनाने के लिए नहीं किया जा सकता है जो संविधान में पहले से मौजूद नहीं थी। कभी-कभी सकारात्मक कार्रवाई की नीतियों और संविधान में कई तरह से मतभेद होते हैं।
- इन नीतियों को समानता के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। मेरा मानना है कि ईवी चिन्नैया मामले में निर्धारित कानून सही है और इसकी पुष्टि होनी चाहिए।
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