कठिन चुनौतियों के प्रति आगाह करने वाले बयान पर अनावश्यक बहस क्यों! – कृष्णमोहन झा/

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17/6/2014

 

कठिन चुनौतियों के प्रति आगाह करने वाले बयान पर अनावश्यक बहस क्यों!

कृष्णमोहन झा/

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने  हाल में  संपन्न  लोकसभा  चुनाव  सहित महत्वपूर्ण  समसामयिक विषयों पर अपने जो विचार व्यक्त किए हैं उसके अलग अलग निहितार्थ खोजे जा रहे हैं और अपनी अपनी सुविधानुसार उनकी विवेचना की जा रही है । गौरतलब है कि मोहन भागवत ने अपने इस उद्बोधनमें लोकसभा चुनावों में विभिन्न दलों के बीच आरोप – प्रत्यारोप , चुनाव प्रचार में विलुप्त होती गरिमा और मर्यादा , सार्वजनिक जीवन  में सद्कार्यों का अहंकार एवं मणिपुर में एक साल से जारी हिंसा आदि ज्वलंत मुद्दों पर अपने सकारात्मक विचार विचार व्यक्त किए थे। भागवत ने अपने इस उद्बोधन में इन सभी चुनौतियों से प्रभावी ढंग से निपटने के लिए महत्वपूर्ण सुझाव दिए थे जिसके पीछे किसी को नसीहत देने की  नहीं थी बल्कि सही दिशा दर्शन की सदभावना थी लेकिन यह नितांत आश्चर्य का विषय है कि भाजपा के इतर कुछ राजनीतिक दल मोहन भागवत के विचारों को केंद्र सरकार और उसकी मुखिया भाजपा के लिए कठोर नसीहत के रूप में देख रहे हैं तो कुछ अन्य राजनीतिक दलों को ऐसा महसूस हो रहा है कि मोहन भागवत के ये विचार भाजपा और संघ के बीच बढ़ती दूरियों के परिचायक हैं। यह भी कम हास्यास्पद नहीं है कि मोहन भागवत के हर बयान का  छिद्रान्वेषण करने में विशेष दिलचस्पी दिखाने वाला एक वर्ग तो इस बयान की ऐसी व्याख्या कर रहा है मानों संघ और भाजपा के बीच तलवारें खिंच चुकी हैं और अब उनके बीच सुलह की कोई गुंजाइश नहीं बची है। दरअसल संघ और भाजपा का परंपरागत आलोचक जो वर्ग मोहन भागवत के इस बयान के पीछे भाजपा को सबक सिखाने की मंशा देख रहा है  वह इस मामले को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा की उस टिप्पणी से जोड़ कर देख रहा है जिसमें उन्होंने कहा था कि वह ‘भाजपा को अब संघ की जरूरत नहीं है। भाजपा अब राजनीतिक फैसले लेने में सक्षम है।’ जे पी नड्डा ने यह टिप्पणी लोकसभा चुनावों के दौरान एक अखबार को दिए गए साक्षात्कार में की थी और उसी समय से संघ और भाजपा के आलोचक इस प्रश्न को लेकर बेहद बेचैन थे कि जे पी नड्डा की इस टिप्पणी का कोई  ‘माकूल जवाब’ देने में संघ आखिर संकोच क्यों कर रहा है। नागपुर स्थित संघ के मुख्यालय में मोहन भागवत का उद्बोधन संघ और भाजपा के आलोचकों के लिए अतिरिक्त खुशी का कारण बन सकता है। यहां यह तो माना जा सकता है कि जे पी नड्डा को चुनाव के दौरान  इस तरह की टिप्पणी करने से परहेज़ करना चाहिए था लेकिन मैं यह मानता हूं कि  जे पी नड्डा ने उक्त टिप्पणी  संघ परिवार का अनादर अथवा उपेक्षा करने की मंशा से कतई नहीं की थी।

संघ, सरकार, और भाजपा के परंपरागत आलोचकों ने संघ प्रमुख मोहन भागवत के  उद्बोधन को नड्डा की टिप्पणी का जवाब मानकर एक  अनावश्यक बहस को जन्म दे दिया है । संघ प्रमुख जब  संघ के कार्यकर्ता विकास वर्ग के लिए आयोजित प्रशिक्षण शिविर के समापन समारोह में  स्वयंसेवकों को संबोधित कर रहे थे तब उनके  उद्बोधन में राष्ट्र के समक्ष मौजूद चुनौतियों और ज्वलंत मुद्दों का उल्लेख  स्वाभाविक था लेकिन संघ प्रमुख ने अपने उसी उद्बोधन में  उन चुनौतियों से सफलतापूर्वक निपटने के लिए कुशल मार्गदर्शन भी किया था। इस उद्बोधन में बहुत सारे संदर्भ शामिल थे लेकिन आलोचकों ने इस उद्बोधन के अधिकांश हिस्से की व्याख्या कुछ इस तरह से की जैसे संघ प्रमुख मोदी सरकार और भाजपा पर परोक्ष रूप से निशाना साध रहे हैं। सवाल यह उठता है कि  संघ प्रमुख जब नागपुर के कार्यकर्ता विकास वर्ग में  उद्बोधन दे रहे थे तो  क्या उन्हें  समकालीन संदर्भों को अपने उद्बोधन में शामिल नहीं करना चाहिए था। आखिर यह कैसे संभव हो सकता था। उनके उद्बोधन के केंद्र में व्यक्ति के चरित्र निर्माण से लेकर सम्पूर्ण राष्ट्र की सुख , समृद्धि और प्रगति की कामना थी।   उसमें किसी की आलोचना का भाव नहीं था न ही किसी को सबक सिखाने की मंशा थी। दरअसल आज आवश्यकता इस बात की है कि संघ प्रमुख के उक्त उद्बोधन के  प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाकर उनके सुझावों से प्रेरणा लेते हुए उन पर अमल करने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ा जाए। संघ प्रमुख के सुझावों को सत्ता पक्ष और विपक्ष के संदर्भ में नहीं बल्कि व्यापक संदर्भ में देखने की आवश्यकता है। मोहन भागवत का यह यह विचार तो हर इंसान के लिए  प्रेरणास्पद है कि वास्तविक सेवा मर्यादा से चलती है और जो उस मर्यादा का  पालन करते हुए  कर्म करता है उसमें यह अहंकार नहीं आता है कि यह कार्य मैंने किया। वही सेवक कहलाने का अधिकारी है । हमारे यहां अहंकार को मनुष्य का शत्रु माना गया है जो व्यक्ति के विकास को रोक देता है। अतः अहंकार के संबंध में मोहन भागवत का यह कथन निःसंदेह   स्वागतेय है । लोकसभा चुनाव के संदर्भ में मोहन भागवत की यह बात सभी राजनीतिक दलों पर लागू होती है कि चुनावों में आरोप – प्रत्यारोप लगाते समय इस बात का पर्याप्त ध्यान रखा जाना चाहिए कि वह सामाजिक विभाजन का कारण न बने। संघ प्रमुख के इस कथन का विपक्ष को निःसंदेह स्वागत करना चाहिए कि लोकतंत्र में विपक्ष को विरोधी न मानकर प्रतिपक्ष के रूप में उसकी राय भी सामने आना चाहिए। संघ प्रमुख ने नागपुर में दिये गये उद्बोधन में मणिपुर में गत एक वर्ष से जारी हिंसा पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि इस समस्या से  प्राथमिकता के आधार पर निपटा जाना  चाहिए। संघ प्रमुख का यह कथन भी निश्चित रूप से रेखांकित किए जाने योग्य है कि कि पिछले दस सालों में बहुत सी सकारात्मक चीजें हुई हैं परन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि हम चुनौतियों से मुक्त हो गये हैं। हम उन चुनौतियों से निपटने के लिए सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाना होगा।

संघ के कार्यकर्ता विकास वर्ग के प्रशिक्षण शिविर के समापन समारोह में संघ प्रमुख का उद्बोधन राष्ट्र के समक्ष मौजूद चुनौतियों के प्रति उनके गहन चिंतन का परिचायक है। संघ प्रमुख अपने उद्बोधन में  केवल समस्या की गंभीरता से भर अवगत नहीं कराते अपितु उनके उचित समाधान की राह भी दिखाते हैं। इसलिए हाल में ही नागपुर में दिए गए उनके उद्बोधन पर बिना किसी पूर्वाग्रह के सार्थक विमर्श किया जाना चाहिए। इससे उन चुनौतियों से निपटने का मार्ग प्रशस्त होगा जिन चुनौतियों का उल्लेख संघ प्रमुख ने किया है। उक्त उद्बोधन के पीछे संघ प्रमुख की मंशा भी यही है।

(लेखक राजनैतिक विश्लेषक है)(update)