इन्दौर । दूसरों की संपत्ति देखकर खुश रहना भी हमें आना चाहिए। श्रीकृष्ण और सुदामा की मित्रता इसलिए भी इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों में दर्ज है कि उनमें कोई स्वार्थ नहीं था। एक राजा और प्रजा के मिलन की पौराणिक कथा है श्रीकृष्ण-सुदामा की मित्रता। भागवत धर्म बहुत व्यापक है। हमें सात पीढियों के भरण-पोषण का धन वैभव भी मिल जाए तो संतुष्टि नहीं होती। भागवत का पहला सूत्र यही है कि बहुत कम समय के जीवन में हम संतुष्ट और प्रसन्न रहने का पुरूषार्थ करें।
ये दिव्य विचार हैं प्रख्यात भागवताचार्य पं. नारायण शास्त्री के, जो उन्होंने नंदानगर रोड नं. एक पर चल रहे संगीतमय भागवत ज्ञानयज्ञ में सुदामा चरित्र प्रसंग की व्याख्या के दौरान व्यक्त किए। कथा में सुदामा मिलन का जीवंत उत्सव भी धूमधाम से मनाया गया। प्रारंभ में संयोजक सचिन कुशवाह, भरत कुशवाह, श्रीमती ललिता राठौर, श्रीमती अर्चना पांडे, श्रीमती कामिनी पाटिल, श्रीमती प्रियंका कुशवाह, रचना कुशवाह आदि ने व्यासपीठ का पूजन किया। संध्या को आरती में विधायक रमेश मैंदोला, समाजसेवी विजय मित्तल, अजय मित्तल, पार्षद चंदू शिंदे सहित अनेक विशिष्टजनों ने भाग लिया।
पं. शास्त्री ने कहा कि बर्तन कितना ही सुंदर और कीमती हो, यदि उसमंे छिद्र होगा तो उत्तम पदार्थ भी बह जाएगा। जीवन यात्रा में भी ऐसे अनेक छिद्र बनते रहते हैं, जो हमारे सदगुणांे को बहा ले जाते हैं। कुसंग से बड़ा कोई छिद्र नहीं होता, लेकिन यदि सत्संग का कवच होगा तो आत्म कल्याण के साधन बचे रहेंगे। भागवत तन के साथ मन से श्रवण करने की कथा है। मन को जगत के बजाय जगदीष में लगाएं। मन को माखन की तरह निर्मल एवं निर्दोष बना लेंगे तो भगवान खुद दौडे़ चले आयेंगे। साधना-आराधना और उपासना तभी सार्थक होगी, जब उनमें वासना नहीं होगी। भागवत मौत को मोक्ष में बदलने की कालजयी चाबी है।