क्‍या है वो एंटी डिफेक्‍शन लॉ, जिसकी चेतावनी शरद पवार ने ‘बागी विधायकों’ को दी?

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महाराष्‍ट्र (Maharashtra) में अजित पवार (Ajit Pawar) के 'बिना सहमति' के बीजेपी के साथ सरकार बना लिए जाने से एनसीपी प्रमुख शरद पवार (Sharad Pawar) बेहद खफा हैं. अजित पवार के साथ ही उनका गुस्‍सा उन पर बागी विधायकों पर भी हैं, जिन्‍होंने अजित को BJP के साथ मिलकर सरकार बनाने में अपना समर्थन दिया और वे राजभवन में शपथ ग्रहण समारोह में दिखाए दिए. शरद ने अपनी नाराजगी का इजहार शिवसेना के साथ संयुक्‍त प्रेस वार्ता में भी किया. उन्‍होंने कहा, हम बागी विधायकों पर एंटी डिफेकशन लॉ (Anti-Defection Law) के तहत कार्रवाई करेंगे और उप चुनाव होने की स्थिति में उनके खिलाफ शिवसेना-एनसीपी और कांग्रेस मिलकर संयुक्‍त उम्‍मीदवार खड़ा करेंगे, जिससे उनकी जीत बेहद मुश्किल हो जाएगी. इस तरह उन्‍होंने बागी विधायकों को चेता दिया कि वे 'बगावत' न करें और चाहें तो लौटकर वापस आ जाएं. लेकिन ऐसा न होने की स्थिति में उन्‍हें भविष्‍य में बड़ा राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ेगा. 

शरद पवार की इस वॉर्निंग के बाद ये जानना जरूरी है कि आखिर ये एंटी डिफेकशन लॉ क्‍या है… 

एंटी डिफेक्‍शन लॉ का मतलब है कि भारत में दल-बदल विरोधी कानून. इसके तहत राजनीतिक लाभ और पद के लालच में दल बदल करने वाले जन-प्रतिनिधियों को अयोग्य करार दिया जाता है, जिसके तहत वे संसद या विधानसभा की सदस्‍यता से संबंधित दल द्वारा अयोग्‍य करार दे दिए जाते हैं. वैसे, दल-बदल कानून को कई बार अभिव्यक्ति की आज़ादी के हनन से भी जोड़कर देखा गया है. हालांकि इस कानून को एक स्‍वस्‍थ लोकतंत्र के निर्माण में काफी प्रभावी माना जाता है. 

दरअसल, लोकतांत्रिक प्रक्रिया में राजनीतिक दल सबसे महत्‍वपूर्ण होते हैं और वे सामूहिक आधार पर फैसले लेते हैं. आजादी के कुछ सालों के बाद ही राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले सामूहिक जनादेश की अवहेलना की जाने लगी. सांसदों-विधायकों के जोड़तोड़ करने से सरकारें गिरने और बनने लगीं. लिहाजा, 1960 और 70 के दशक में ‘आयाराम-गयाराम’ की अवधारणा बेहद प्रचलित हो चली थी. ऐसे में जरूरत महसूस होने लगी कि राजनीतिक दलों को मिलने वाले जनादेश का उल्लंघन करने वाले सदस्यों को चुनाव में भाग लेने से रोकने और अयोग्य घोषित किया जाए. साल 1985 में संविधान संशोधन के ज़रिये दल-बदल विरोधी कानून लाया गया.

भारतीय संविधान की 10वीं अनुसूची जिसे लोकप्रिय रूप से 'दल बदल विरोधी कानून' कहा जाता है. इसे साल 1985 में 52वें संविधान संशोधन द्वारा लाया गया. ‘दल-बदल’ दल-बदल करने वाले सदस्यों को अयोग्य ठहराने संबंधी प्रावधानों को परिभाषित करता है. इसका उद्देश्य सियासी लाभ और पद के लालच में दल–बदल करने वाले जन प्रतिनिधियों को अयोग्य करार देना है, ताकि संसद-विधानसभा की स्थिरता बनी रहे.

इन आधारों पर जन-प्रतिनिधियों को किया जाता है अयोग्य घोषित…
-अगर एक निर्वाचित सदस्य स्वेच्छा से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ देता है.
-अगर कोई निर्दलीय निर्वाचित सदस्य कानून विरुद्ध किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है.
-अगर किसी सदस्य द्वारा सदन में पार्टी के पक्ष के विपरीत वोट किया जाता है.
-अगर कोई सदस्य खुद को वोटिंग से अलग रखता है.
-अगर 6 महीने की समाप्ति के बाद कोई मनोनीत सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है.